दबे हुए से कुछ ख़्वाब
अपनी मिट्टी की भीनी – भीनी रात
उसमें अपनों की आवाज़ का बुलाना…
अपनों के प्यार की झलक
हमेशा ताक – झाँक करना…
ऐसे दबे हुए से कुछ ख़्वाब
उन्हें जलाए
एक अरसा हो गया…
होंठों से निकली अपने नाम की पहचान
माँ के होने का एहसास
नन्हें भाई के ख़्वाब में से भी
अपना हिस्सा चुरा ले जाना…
ऐसे दबे हुए से कुछ ख़्वाब
उन्हें जलाए
एक अरसा हो गया…
मेरी उल्फ़त भरी निगाह से उठे कदम
घर की गलियों से निकलना…
मेरी रंजिश भरी आज़ादियों का
दबे पाँव दहलीज़ से हिफाज़त करना…
ऐसे दबे हुए से कुछ ख़्वाब
उन्हें जलाए
एक अरसा हो गया…
मेरे बचपन की वो लिखावट
टेढ़ी- मेढ़ी चलती, आकार बन जाना…
मेरे लड़कपन की वो नादान नाराज़गी
नींद सिमटने तक लापता हो जाना…
ऐसे दबे हुए से कुछ ख़्वाब
उन्हें जलाए
एक अरसा हो गया…
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