I.

अपने ही देश में, अपनों से ही भरा, 

अनजाना सा शहर वोः, भोपाल।

अपनेपन की साफ़ सफ़ेद चदरिया पहने, 

अनजान होने का स्पर्श छोड़ जानेवाला वह, भोपाल।

II.

मैंने सोचा बस एक भाषा का ही तो अंतर ठहरा, 

पार कर लेंगे सुरीले शब्दों की इस नदी को, 

हिंदी के स्वर के किनारे जाकर जब पानी छुआ 

तोह उसकी महक, उसके मतलब, उसकी सोच 

ज़िन्दगी की लैय, जज़्बात का माप, सब अलग, सब विपरीत।

अनजाना सा ही था शहर वो भोपाल। 

III.

नाट्य का जाना पहचाना मंच देखा तो साहस हुआ, 

इस दुनिया के रंग और रंजिश दोनों से वाकिफ थे हम।

भीतर गए तोह जान पड़ा की राम और सीता पात्र नहीं है यहां, 

भारतीय संस्कृति की एक सच्चाई है जिसने इतिहास का पन्ना 

अभी तक पलटा ही नहीं था।

आज के आसमान से परे, अनजाना सा वो शहर, भोपाल।

III.

यहां की सुबह की महक अनोखी थी, 

मंजू के पराठों की खुशबू से भरी थी।

कितना आता, कौनसी चटनी, किस आचार के साथ…

इस चर्चा के चेहरे में, मम्मी, दादी, चची, सांस के 

किचन के किस्सों में….लुक्का छुपी करती नज़र आयी 

अपनेपन की ढूडंली सी तस्वीर।

IV.

उस रात कुछ कम अजनबी सा लगा वो शहर, भोपाल।

शन्नो ने बिस्तर दो बिछाए उस रात, 

दो से एक ही कमरे में घर को समां लिया हो जैसे।

उसकी अलमारी के कपडे रोज़ बिखरते, 

मैं रोज़ इकठ्ठा करती, हमारी दोस्ती के सुहाने लम्हे, 

बुनते और बनाती।

नए लम्हो के चिलमन में अनजाना अपना सा लगा, वो शहर, भोपाल।